1857 की क्रांति: विद्रोह, स्वतंत्रता या आत्म-संघर्ष
डॉ. प्रियेश कुमार
(प्रा. भा. इ. स. एवं पुरातत्व विभाग)
तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय भागलपुर
सारांश
1857 की क्रांति भारतीय इतिहास की एक ऐसी घटना है जिसे अलग-अलग विचारधाराओं के तहत अलग-अलग नामों से जाना गया है — ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसे 'सिपाही विद्रोह' कहा, वहीं भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने इसे 'प्रथम स्वतंत्रता संग्राम' की संज्ञा दी। लेकिन क्या यह क्रांति वास्तव में एक संगठित राष्ट्रवादी आंदोलन थी या यह एक बहुआयामी आत्म-संघर्ष था जिसमें सामाजिक, क्षेत्रीय और वैचारिक परतें अंतर्निहित थीं? यह शोध इन्हीं प्रश्नों की पृष्ठभूमि से उत्पन्न होता है। इस आलेख का उद्देश्य 1857 की क्रांति को केवल एक सैन्य अथवा राजनीतिक विद्रोह के रूप में देखने से परे जाकर इसे सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में पुनः विश्लेषित करना है। यह शोध उन उपेक्षित पहलुओं की पड़ताल करता है जिन्हें परंपरागत इतिहास लेखन ने नज़रअंदाज़ किया — जैसे स्थानीय नेतृत्व की वैचारिक असंगति, दलित-आदिवासी भागीदारी की सीमा, और जनसामान्य की भूमिका। इस विमर्श के माध्यम से इतिहास को अधिक समावेशी और बहुपरतीय दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया गया है। 1857 की क्रांति भारत के उपनिवेशी इतिहास में एक निर्णायक मोड़ थी, जिसे प्रायः केवल सैन्य असंतोष या सत्ता संघर्ष के रूप में चित्रित किया गया। यह शोध आलेख इस क्रांति को 'विद्रोह' से आगे बढ़ाकर एक 'आत्म-संघर्ष' के रूप में देखने का प्रयास करता है — ऐसा संघर्ष जिसमें भारत की सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक पहचान और राजनीतिक आकांक्षाओं के बीच मंथन हो रहा था। आलेख में वैचारिक असंगति, क्षेत्रीय असंतुलन, और नेतृत्व की विविधता के साथ-साथ सामाजिक वर्गों की भूमिका की समीक्षा की गई है। साथ ही यह भी दर्शाया गया है कि किस प्रकार यह क्रांति न केवल ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ, बल्कि भारतीय समाज के अंदर विद्यमान अंतर्विरोधों के विरुद्ध भी थी। अंततः यह शोध 1857 की क्रांति को एक जटिल, बहुपरतीय और ऐतिहासिक रूप से पुनर्व्याख्यायित घटना के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसकी समझ आज के समकालीन विमर्शों के लिए भी प्रासंगिक है।
मूल शब्द (Key Words) :विद्रोह, आत्म-संघर्ष, ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति, सामाजिक असंतोष, धार्मिक हस्तक्षेप, क्षेत्रीय नेतृत्व, सैन्य विद्रोह, जन सहभागिता